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CAA-NRC Protest:असम संकट और CAA से कनेक्शन क्या है, नेहरू ने क्यों करायी थी NRC?

CAA-NRC Protest: नेहरू को यह समझ में आ गया था कि जिस तरह से बांग्लादेश से लोगों का पलायन जारी है, उससे आने वाले समय में चीजे बिगड़ेंगी और यह पता करना मुश्किल हो जाएगा कि असम का मूल नागरिक कौन है और कौन नहीं, इसीलिए उन्होंने 1951 में एनआरसी कराया.

CAA-NRC Protest: केंद्र सरकार ने सीएए को लेकर नॉटिफिकेशन जारी कर दिया है, जिसपर राजनैतिक गलियारों में तरह-तरह की बयाजबाजी हो रही है. लेकिन भारत सरकार को सीएए की जरूरत क्यों पड़ी, इसको जानने के लिए असम संकट को जानना बहुत ही जरूरी है, क्योंकि बिना असम संकट के जाने सीएए और एनआरसी पर बात नहीं की जा सकती. अगर सही समय पर देश में असम और बांग्लादेश में आने वाले प्रवासियों का संकट सुलझा लिया जाता तो आज इसकी जरूरत नहीं पड़ती.

असम संकट की शुरुआत 1826 में होती है, आज का असम और मणिपुर 1826 से पहले तक बर्मा (म्यांमार) का इलाका होता था. 1826 में पहला एंग्लो-बर्मी युद्ध होता है और ईस्ट इंडिया कंपनी का बर्मा के शासकों से युद्ध होता है. यह युद्ध ईस्ट इंडिया कंपनी जीत गई तो उसने असम, मणिपुर और कुछ अन्य इलाके बर्मा से ले लिए. इसमें अहोम और कछार साम्राज्य दोनों आते थे. यहां पर आबादी बहुत कम थी और प्राकृतिक संसाधन बहुत ज्यादा थे, इसलिए अंग्रेजों ने यहां पर चाय और तेल की खेती के लिए बंगाल से मजदूरों को यहां पर बुलाना शुरू कर दिया.

1826 से असम में बंगाल से मजदूरों का आना जारी रहा और 1931 में यहां पर स्थिति इतनी ज्यादा भयानक हो गई कि उस समय हुई जनगणना के चीफ कमीश्नर को अपने कमेंट में यह लिखना पड़ा कि पिछले 100 सालों में ईस्ट इंडिया कंपनी ने असम की पूरी संस्कृति को नष्ट कर दिया और इसका भोगोलिक बेलेंस पूरा बिगड़ गया है. इसके साथ ही असम के मूल निवासी यहां पर अल्पसंख्यक होने की कगार पर हैं, जबकि बंगाल का मुस्लिम समुदाय यहां पर इतना ज्यादा हो गया है कि असम के कल्चर में उसका असम वाला तत्व कम होता जा रहा है. इन्होंने यह भी चेताया कि असम बारूद के ढेर पर बैठा है और आने वाले समय में यहां पर हालात बहुत बिगड़ने वाले हैं.

1950 का एक्ट और नेहरू-लियाकत समझौता

इसके बाद अंग्रेज 1947 में देश छोड़कर चले गए, लेकिन भारत को दो टुकड़ों में बांट दिया गया. आजादी से पहले का बंगाल भी पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में बंट गया. हालांकि उस समय के बांग्लादेश से बंटवारे के बाद कुछ ज्यादा लोगों ने पलायन नहीं किया, लेकिन 1950-1951 आते-आते स्थितियां खराब होनी शुरू हो गई और नेहरू जी को भी इसकी चिंता सताने लगी. नेहरू जी ने 1950 में एक कानून बनाया, जिसका नाम इमिग्रेशन एक्सप्लेन फ्रॉम असम एक्ट 1950 था. इसमें कहा गया था कि जो लोग भी असम में बाहर से आ रहे हैं, उनको बांग्लादेश में भेजा जाना चाहिए. हालांकि इसमें एक क्लॉज था कि यदि कोई व्यक्ति वहां पर अल्पसंख्यक है और उत्पीड़न की वजह से भारत में आया है तो उसपर यह कानून लागू नहीं होगा. इसी साल में नेहरू-लियाकत समझौता भी हुआ, जिसके तहत दोनों देशों के अल्पसंख्यक अगर एक-दूसरे देश में जाना चाहते हैं तो उनको इसकी अनुमति दी जाएगी.

1951 में नेहरू को क्यों लाना पड़ा एनआरसी

नेहरू को यह समझ में आ गया था कि जिस तरह से बांग्लादेश से लोगों का पलायन जारी है, उससे आने वाले समय में चीजे बिगड़ेंगी और यह पता करना मुश्किल हो जाएगा कि असम का मूल नागरिक कौन है और कौन नहीं, इसीलिए उन्होंने 1951 में एनआरसी कराया. उनका मानना था कि 1826 से 1951 तक जो भी लोग यहां पर आए हैं, वो तो सही है लेकिन अब वक्त आ गया है यह जानने का कि आज की तारीख में यहां पर कौन-कौन नागरिक हैं. उन्होंने बिना किसी को बताए 1951 की जनगणना के दौरान 20 दिन में यह प्रोसेस पूरा कर लिया कि असम में इस समय रहना वाला कौन-कौन नागरिक भारत का रहने वाला है. इसको भविष्य में एक रेफरेंस रखने के तौर पर कराया.

बंटवारे के बाद पाकिस्तान को वेस्ट और ईस्ट दो हिस्से दे दिए गए थे. ईस्ट पाकिस्तान में बांग्ला भाषा बोली जाती थी, लेकिन वेस्ट पाकिस्तान में पंजाबी, सिंधी, ब्लूची और पश्तुनी बोली जाती थी. यह अजीब था कि वेस्ट पाकिस्तान ने पूरे देश में उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाने का ऐलान किया गया. ईस्ट पाकिस्तान के लोगों को भी उर्दू ही सीखनी पड़ेगी और इसको लेकर यहां पर उर्दू विरोध शुरू हो गया. 21 फरवरी 1952 में पुलिस के अत्याचार में 7-8 लोगों की मौत हो गई और तभी से यहां के लोगों ने 21 फरवरी का दिन बंगाली भाषा दिवस के रूप में मनाना शुरू कर दिया. यही आंदोलन आगे बढ़ते हुए 1971 में बांग्लादेश की मुक्ति का कारण बना.

1952 में शुरू हुए बंगाली भाषा आंदोलन के बाद बांग्लादेश में लोगों पर हो रहे अत्याचार के बाद वहां से भारत में पलायन जारी रहा. 1951 में विजय लक्ष्मी पंडित ने यूएन में यह बात कही कि ईस्ट पाकिस्तान में वेस्ट पाकिस्तान के हुकुमरान के जुल्मों की वजह से करीब 22.5 लाख हिंदुओं ने पांच साल में भारत में पलायन किया है. 1964 के आते-आते हालात काफी बिगड़ चुके थे और उस समय नेहरू जी का भी निधन हो गया था, जिसके बाद लाल बहादुर शास्त्री को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया.

शास्त्री जी ने बनाए फॉरेनर्स रूल्स 1964

लाल बहादुर शास्त्री को भी यह समस्या दिख रही थी और सितंबर 1964 में उन्होंने एनआरसी को अपडेट करने की बात कही. उन्होंने भारत के नागरिकों को नेशनल आइडेंटिटी कार्ड प्रदान करने की सहमति भी दे दी. इसके अलावा फॉरेनर्स एक्ट 1946 (इस एक्ट में अवैध रूप से भारत में रहने वाले नागरिक को गिरफ्तार कर उसपर केस चलाने का अधिकार देता है, इसके साथ ही अगर भारत सरकार को किसी शख्स पर विदेशी होने का शक है तो उसको नोटिस दिया जाएगा, जिसमें वह खुद को भारत का नागरिक है यह साबित करना होता है) के तहत 1964 में रूल्स निकाले गए और यह तय किया गया कि फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल बनाए जाएंगे, जिसमें विदेशी लोगों की सुनवाई होगी और त्वरित कार्रवाई करते हुए उन लोगों को भारत से बाहर निकाला जाएगा.

इसके बाद 1965 में भारत और पाकिस्तान का युद्ध हुआ और ईस्ट पाकिस्तान में बहुत बड़े पैमाने से भारत में पलायन होने लगा. 1966 में भारत की जीत के बाद पाकिस्तान से समझौता करने के लिए शास्त्री जी ताशकंद गए, जहां पर उनकी मृत्यु हो गई और इसके बाद इंदिरा गांधी भारत की प्रधानमंत्री बन गईं. हालांकि मोरारजी देसाई से लेकर कुछ लोग अन्य इंदिरा के खिलाफ थे, जिस वजह से 1969 में कांग्रेस टूट गई. 1971 में एक बार फिर से चुनाव हुए और इंदिरा फिर से देश की प्रधानमंत्री बनीं.

ईस्ट पाकिस्तान में बिगड़े हालात

1970 में पाकिस्तान में चुनाव हुए और वहां पर कुल 313 सीटों में से वेस्ट पाकिस्तान में किसी एक पार्टी को बहुमत नहीं मिला और जुल्फिकार अली भुट्टो की पीपीपी को 81 सीटें मिली, जबकि ईस्ट पाकिस्तान में बंगाली भाषा को लेकर शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी आवामी लीग को 167 सीट मिल गई, जोकि स्पष्ट बहुमत था. पाकिस्तान में पहली बार ऐसी स्थिति हुई कि ईस्ट पाकिस्तान के लोग देश पर राज करेंगे. वेस्ट पाकिस्तान के लोगों को यह बर्दाशत नहीं हुआ और याह्या खान व जुल्फिकार अली भुट्टो ने कई बार शेख मुजीबुर्रहमान से मुलाकात की, यह दोनों नहीं चाहते थे कि ईस्ट पाकिस्तान को सत्ता ना सौंपी पाएं और संसद का सत्र नहीं बुलाया गया. इसके बाद 7 मार्च 1971 को शेख मुजीबुर्रहमान ने सत्ता नहीं सौंपे जाने के बाद ईस्ट पाकिस्तान को अलग देश बनाने की घोषणा कर दी.

इसी से नाराज होकर वेस्ट पाकिस्तान ने 25 मार्च 1971 को ऑपरेशन सर्च लाइट शुरू कर दिया, जिसका मकसद ईस्ट पाकिस्तान से बांग्ला भाषा आंदोलन और आजादी की बात को पूरी तरह से खत्म करना. इस दौरान करीब वेस्ट पाकिस्तान में 30 लाख लोगों को पाकिस्तान की सेना ने मार डाला और 26 मार्च 1971 को ईस्ट पाकिस्तान ने आजादी की घोषणा कर दी. हालांकि युद्ध में उनकी जीत 16 दिसंबर 1971 को हुई थी, लेकिन यह आज भी अपना संविधान दिवस 26 मार्च को ही मनाते हैं.

1 करोड़ लोग बांग्लादेश से आए भारत

इसी समय भारत में एक से 10 मार्च के चुनाव हुए और इंदिरा गांधी सबसे बड़ी नेता बनकर उभरी. पीएम बनते ही उनके सामने ईस्ट पाकिस्तान का सबसे बड़ा सकंट था. इंदिरा ने यूएसएसआर से बात करके युद्ध होने की स्थिति में भारत का साथ देने का आश्वासन लिया और सेना से भी बात की. सेना ने युद्ध के लिए सर्दी तक का समय मांगा. इसके बाद 16 दिसंबर 1971 को पाकिस्तान की फौज ने भारत के सामने घुटने टेक दिए और ईस्ट पाकिस्तान अब बांग्लादेश बन चुका था, लेकिन ऑपरेशन सर्च लाइट के समय से बांग्लादेश से भारत में आने वाले प्रवासियों की तादाद करीब 1 करोड़ हो गई थी. हालांकि युद्ध खत्म होने के बाद करीब 90 लाख लोग एक साल के अंदर वापस चले गए.

युद्ध जीतने के बाद 1972 में इंदिरा गांधी ढाका गई थी और शेख मुजीबुर्रहमान से मुलाकात कर एक समझौता किया, जिसमें कहा गया कि 25 मार्च 1971 के बाद जीतने लोग भी बांग्लादेश से भारत आए हैं उनको बांग्लादेश वापस लेगा. तभी से भारत सरकार 25 मार्च 1971 के बाद से बांग्लादेश से आने वाले लोगों को वापस भेजने की बात होती है. 1972 से लेकर 1976-77 तक इंदिरा गांधी की केंद्र में सरकार रही, लेकिन इस मुद्दे पर ज्यादा कुछ हुआ नहीं. 1975 से 1977 की शुरुआत तक देश में इमरजेंसी थी, लेकिन 1977 में इमरजेंसी वापस लेने के बाद जनता पार्टी ने इंदिरा गांधी को हराकर केंद्र में सरकार बनाई.

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