Mithun Sankranti 2024:आज करें मिथुन संक्रांति पर इस चालीसा का पाठ, होगी अपार धन-संपदा की प्राप्ति

12:40 PM Jun 15, 2024 | zoomnews.in

Mithun Sankranti 2024: हिंदू धर्म में संक्रांति का पर्व को बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है. ग्रहों के अधिपति राजा सूर्य के एक राशि से निकलकर दूसरी राशि में प्रवेश करने को संक्रांति कहा जाता है. ऐसे ही मिथुन संक्रांति का दिन बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है. इस दिन भगवान सूर्य देव की पूजा की जाती है. इस तिथि पर सूर्यदेव वृषभ राशि में अपनी यात्रा समाप्त कर मिथुन राशि में गोचर करते हैं. मिथुन संक्रांति पर भगवान सूर्य की विधि अनुसार पूजा करने से शुभ फलों की प्राप्ति होती है. साथ ही इस गोचरकाल में सूर्य चालीसा का पाठ भी बहुत कल्याणकारी माना जाता है.

आज यानी 15 जून 2024 के दिन मिथुन संक्रांति पर्व मनाया जाएगा. आज के दिन सूर्यदेव वृष राशि से निकलकर मिथुन राशि में प्रवेश करेंगे. इस दिन का विशेष धार्मिक महत्व भी होता है. मान्यताओं के अनुसार, मिथुन संक्रांति पर सूर्य चालीसा और स्तोत्र का पाठ करने से विशेष लाभ मिलता है और जीवन में आ रही कई प्रकार की समस्याएं दूर हो जाती हैं. ऐसे में आइए पढ़ते हैं, सूर्य स्तोत्र और सूर्य चालीसा.

सूर्य चालीसा का पाठ (Surya Chalisa)

॥ दोहा ॥

  • कनक बदन कुण्डल मकर,मुक्ता माला अङ्ग।
  • पद्मासन स्थित ध्याइए,शंख चक्र के सङ्ग॥

॥ चौपाई ॥

  • जय सविता जय जयति दिवाकर!।सहस्रांशु! सप्ताश्व तिमिरहर॥
  • भानु! पतंग! मरीची! भास्कर!।सविता हंस! सुनूर विभाकर॥
  • विवस्वान! आदित्य! विकर्तन।मार्तण्ड हरिरूप विरोचन॥
  • अम्बरमणि! खग! रवि कहलाते।वेद हिरण्यगर्भ कह गाते॥
  • सहस्रांशु प्रद्योतन, कहिकहि।मुनिगन होत प्रसन्न मोदलहि॥
  • अरुण सदृश सारथी मनोहर।हांकत हय साता चढ़ि रथ पर॥
  • मंडल की महिमा अति न्यारी।तेज रूप केरी बलिहारी॥
  • उच्चैःश्रवा सदृश हय जोते।देखि पुरन्दर लज्जित होते॥
  • मित्र मरीचि भानु अरुण भास्कर।सविता सूर्य अर्क खग कलिकर॥
  • पूषा रवि आदित्य नाम लै।हिरण्यगर्भाय नमः कहिकै॥
  • द्वादस नाम प्रेम सों गावैं।मस्तक बारह बार नवावैं॥
  • चार पदारथ जन सो पावै।दुःख दारिद्र अघ पुंज नसावै॥
  • नमस्कार को चमत्कार यह।विधि हरिहर को कृपासार यह॥
  • सेवै भानु तुमहिं मन लाई।अष्टसिद्धि नवनिधि तेहिं पाई॥
  • बारह नाम उच्चारन करते।सहस जनम के पातक टरते॥
  • उपाख्यान जो करते तवजन।रिपु सों जमलहते सोतेहि छन॥
  • धन सुत जुत परिवार बढ़तु है।प्रबल मोह को फंद कटतु है॥
  • अर्क शीश को रक्षा करते।रवि ललाट पर नित्य बिहरते॥
  • सूर्य नेत्र पर नित्य विराजत।कर्ण देस पर दिनकर छाजत॥
  • भानु नासिका वासकरहुनित।भास्कर करत सदा मुखको हित॥
  • ओंठ रहैं पर्जन्य हमारे।रसना बीच तीक्ष्ण बस प्यारे॥
  • कंठ सुवर्ण रेत की शोभा।तिग्म तेजसः कांधे लोभा॥
  • पूषां बाहू मित्र पीठहिं पर।त्वष्टा वरुण रहत सुउष्णकर॥
  • युगल हाथ पर रक्षा कारन।भानुमान उरसर्म सुउदरचन॥
  • बसत नाभि आदित्य मनोहर।कटिमंह, रहत मन मुदभर॥
  • जंघा गोपति सविता बासा।गुप्त दिवाकर करत हुलासा॥
  • विवस्वान पद की रखवारी।बाहर बसते नित तम हारी॥
  • सहस्रांशु सर्वांग सम्हारै।रक्षा कवच विचित्र विचारे॥
  • अस जोजन अपने मन माहीं।भय जगबीच करहुं तेहि नाहीं ॥
  • दद्रु कुष्ठ तेहिं कबहु न व्यापै।जोजन याको मन मंह जापै॥
  • अंधकार जग का जो हरता।नव प्रकाश से आनन्द भरता॥
  • ग्रह गन ग्रसि न मिटावत जाही।कोटि बार मैं प्रनवौं ताही॥
  • मंद सदृश सुत जग में जाके।धर्मराज सम अद्भुत बांके॥
  • धन्य-धन्य तुम दिनमनि देवा।किया करत सुरमुनि नर सेवा॥
  • भक्ति भावयुत पूर्ण नियम सों।दूर हटतसो भवके भ्रम सों॥
  • परम धन्य सों नर तनधारी।हैं प्रसन्न जेहि पर तम हारी॥
  • अरुण माघ महं सूर्य फाल्गुन।मधु वेदांग नाम रवि उदयन॥
  • भानु उदय बैसाख गिनावै।ज्येष्ठ इन्द्र आषाढ़ रवि गावै॥
  • यम भादों आश्विन हिमरेता।कातिक होत दिवाकर नेता॥
  • अगहन भिन्न विष्णु हैं पूसहिं।पुरुष नाम रवि हैं मलमासहिं॥

॥ दोहा ॥

  • भानु चालीसा प्रेम युत,गावहिं जे नर नित्य।
  • सुख सम्पत्ति लहि बिबिध,होंहिं सदा कृतकृत्य॥

सूर्य स्तोत्र (Surya Stotram)

  • प्रात: स्मरामि खलु तत्सवितुर्वरेण्यंरूपं हि मण्डलमृचोऽथ तनुर्यजूंषी । सामानि यस्य किरणा: प्रभवादिहेतुं ब्रह्माहरात्मकमलक्ष्यचिन्त्यरूपम् ।।1।।
  • प्रातर्नमामि तरणिं तनुवाऽमनोभि ब्रह्मेन्द्रपूर्वकसुरैनतमर्चितं च। वृष्टि प्रमोचन विनिग्रह हेतुभूतं त्रैलोक्य पालनपरंत्रिगुणात्मकं च।।2।।
  • प्रातर्भजामि सवितारमनन्तशक्तिं पापौघशत्रुभयरोगहरं परं चं। तं सर्वलोककनाकात्मककालमूर्ति गोकण्ठबंधन विमोचनमादिदेवम् ।।3।।
  • ॐ चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने:। आप्रा धावाप्रथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्र्व ।।4।।
  • सूर्यो देवीमुषसं रोचमानां मत्योन योषामभ्येति पश्र्वात् । यत्रा नरो देवयन्तो युगानि वितन्वते प्रति भद्राय भद्रम् ।।5।।