Cash For Query Case: लोकसभा में सवाल पूछने के बदले पैसे लेने के मामले में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता को रद्द कर दिया गया है। इस बाबत अब महुआ मोइत्रा ने पहली प्रतिक्रिया दी है। 8 दिसंबर को उन्होंने प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि मेरे खिलाफ कोई सबूत नहीं थे। उन्होंने निशाना साधा हुए कहा कि मोदी सरकार इतना करने के बाद भी मुझे चुप नहीं करा सकती है। उन्होंने कहा, 'एथिक्स कमेट की रिपोर्ट में मेरी लोकसभा सदस्या को रद्द करने की सिफारिश के पीछे का कारण लॉगइन आईडी को शेयर करना बताया गया था, जबकि इस बाबत किसी प्रकार का कोई नियम नहीं है।'
लोकसभा से निकाले जाने पर क्या बोलीं महुआ मोइत्रा
महुआ मोइत्रा ने आगे कहा कि मोदी सरकार ये सोचती है कि मुझे चुप कराकर वो अडानी ग्रुप के मुद्दे से छुटकारा पा सकती है। मैं बता दूं कि इस कंगारू कोर्ट ने जो किया उससे पूरे देश ने यह देखा कि आखिर अडानी ग्रुप का मुद्दा कितना अहम है। बता दें कि संसदीय कार्यमंत्री प्रह्लाद जोशी ने महुआ मोइत्रा की संसद सदस्यता को रद्द करन के लिए प्रस्ताव को सदन में पेश किया जिसे ध्वनिमत से मंजूरी दे दी गई। महुआ मोइत्रा ने इस बाबत आगे कहा कि मैंने लॉगइन पोर्टल के जरिए राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा पैदा किया है। लेकिन भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी ने दानिश अली को संसद भवन में ही धर्मसूतक शब्द बोले।
पैसे लेकर सवाल पूछना पड़ा महंगा
उन्होंने कहा कि दानिश अली 26 मुस्लिम सांसदों में से एक हैं। देश में 200 मिलियन मुस्लिम रहते हैं, लेकिन सिर्फ 26 सांसद हैं। जबकि भाजपा के पास 303 सांसद हैं और उनका एक सांसद भी मुस्लिम नहीं है। बता दें कि भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने आरोप लगाया था कि महुआ मोइत्रा ने लोकसभा में उद्योगपति गौतम अडानी के खिलाफ सवाल पूछने के लिए पैसे और महंगे गिफ्ट लिए हैं। इस बाबत भाजपा सांसद विनोद कुमार सोनकार की अध्यक्षता वाली आचार समिति ने 9 नवंबर को एक बैठक की थी। इस बैठक में पैसे लेकर सदन में सवाल पूछने के मामले में महुआ मोइत्रा को लोकसभा से निष्कासित करने वाली सिफारिश रिपोर्ट को स्वीकार किया था।
18 साल पहले 11 सांसद हुए थे निलंबित
18 साल पहले 2005 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के एक साल बाद, डिजिटल पोर्टल कोबरापोस्ट ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया था. इसमें ऑपरेशन दुर्योधन के तहत सांसदों को फंसाया गया था, जिन्होंने कथित तौर पर पैसे के बदले में एक कंपनी को बढ़ावा देने और सदन में सवाल पूछने की इच्छा दिखाई थी और फिर उन सांसदों ने संसद में सवाल भी पूछे थे.
स्टिंग में जो सांसदों फंसे थे, उनमें से छह- छत्रपाल सिंह लोढ़ा (ओडिशा), अन्ना साहेब एमके पाटिल (एरंडोल, महाराष्ट्र), चंद्र प्रताप सिंह (सीधी, मध्य प्रदेश), प्रदीप गांधी (राजनांदगांव, छत्तीसगढ़), सुरेश चंदेल (हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश) और जी महाजन (जलगांव, महाराष्ट्र) बीजेपी के थे.
इसके अलावा, तीन सांसद नरेंद्र कुमार कुशवाहा (मिर्जापुर, उत्तर प्रदेश), लाल चंद्र कोल (रॉबर्स्टगंज, उत्तर प्रदेश) और राजा राम पाल (बिल्हौर, उत्तर प्रदेश) बसपा के थे और एक-एक राजद (मनोज कुमार) से थे और कांग्रेस (राम सेवक सिंह). इनमें से छ्त्रपाप सिंह लोढ़ा राज्यसभा सांसद थे.
आडवाणी ने निलंबन की तुलना “मृत्युदंड” से की थी
फुटेज के प्रसारण के उसी दिन, मामले की जांच के लिए लोकसभा अध्यक्ष द्वारा एक संसदीय समिति का गठन किया गया था. समिति के निष्कर्षों के आधार पर, तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी ने 23 दिसंबर को एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें कहा गया कि 10 लोकसभा सांसदों का आचरण “संसद के सदस्यों के लिए अनैतिक और अशोभनीय था. उन्हें लोकसभा की सदस्यता से निष्कासित किया जा सकता है. प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया था, लेकिन भाजपा ने इसका विरोध किया था और फिर विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने निष्कासन की तुलना “मृत्युदंड” से की थी.
दूसरी ओर, राज्यसभा ने बाद में सांसद करण सिंह के नेतृत्व वाली अपनी आचार समिति द्वारा मामले की जांच के बाद लोढ़ा को भी निष्कासित कर दिया, जिसमें कहा गया था कि यह निर्णय “सदन की ईमानदारी और गरिमा के उच्चतम स्तर को बनाए रखने के लिए” लिया गया था. इसके बाद, सांसदों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और “संसद के दोनों सदनों द्वारा अपनाई गई प्रक्रिया पर सवाल उठाया, और आरोप लगाया कि यह घोर अवैधता से ग्रस्त है.” उन्होंने कहा कि जांच “अनावश्यक जल्दबाजी” की गई, और “न तो निष्पक्ष और न ही निष्पक्ष” थी.
सुप्रीम कोर्ट तक गया था निलंबन का मामला
2007 में, सर्वोच्च न्यायालय ने निष्कासन को बरकरार रखा था, जिसने राजा राम पाल राम पाल बनाम माननीय अध्यक्ष मामले में कहा था कि निष्कासन की शक्ति संसद के विशेषाधिकारों और उन्मुक्तियों का हिस्सा थी. लेकिन, 2009 में एक और मोड़ में, दिल्ली पुलिस ने कोबरापोस्ट के दो पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की और स्टिंग ऑपरेशन में बिचौलिए की भूमिका की जांच की.
पत्रकारों ने अपने खिलाफ कार्यवाही को रद्द करने की मांग करते हुए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और आरोप लगाया कि पुलिस भ्रष्ट सांसदों को बचा रही है और इसके बजाय उन्हें फंसा रही है. एक साल बाद, दिल्ली उच्च न्यायालय ने उनके खिलाफ आरोपों को खारिज कर दिया.