Maharashtra Politics: महाराष्ट्र में हर पार्टी फूट की शिकार है. शिव सेना 2022 की जून में टूट गई थी. सेना के एकनाथ शिंदे ने बग़ावत कर उद्धव ठाकरे की सरकार गिरवा दी थी. भाजपा से उनका समझौता हुआ और भाजपा ने उनकी सरकार बनवा दी. जुलाई 2023 में NCP से अजित पवार टूटे और वे भी भाजपा के साथ सरकार में आ जुड़े. 13 फ़रवरी को पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस नेता अशोक चव्हाण ने अपनी पार्टी से बग़ावत कर दी. वे भी अपने समर्थकों के साथ भाजपा के साथ जुड़ गये. उन्हें भाजपा से राज्य सभा का टिकट भी मिल गया. एक तरह से महाराष्ट्र में गैर भाजपाई हर दल में टूट है और पारस्परिक अनबन है. हालांकि सुप्रिया सुले ने कहा है, कि उनकी पार्टी NCP (शरद चंद्र पवार) का विलय कांग्रेस में नहीं होगा. उनके अनुसार वे लोग पहले की तरह महा विकास अघाड़ी में रहेंगे और चुनाव का सामना करेंगे.
महाराष्ट्र में भाजपा विरोधी सभी दलों का एक होना जरूरी है. 2024 के लोकसभा चुनाव में इस प्रदेश की 48 सीटें अहम हैं. इंडिया गठबंधन को उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से कुछ ज़्यादा पाने की उम्मीद नहीं है. इसलिए सबकी निगाह दूसरे सबसे बड़े राज्य महाराष्ट्र पर टिकी है. भाजपा के रणनीतिकार जिस तरह से महाराष्ट्र के विपक्षी दलों की फूट को हवा दे रहे हैं, उसके चलते इनकी महा विकास अघाड़ी (MVA) का अस्तित्त्व ही संकट में आ गया है.
NCP के बाद कांग्रेस में भी फूट
इसी MVA की तर्ज़ पर ग़ैर भाजपा दलों ने इंडिया गठबंधन को बनाया था. शिवसेना, NCP के बाद कांग्रेस में भी फूट पड़ गई. और जो भी धड़ा टूटा उसने भाजपा गठबंधन (NDA) से नाता जोड़ा. इसलिए हर दल के भीतर सन्नाटा खिंचा है. शरद पवार की NCP के पास एक रास्ता है भाजपा से जुड़ने का लेकिन उसमें जा कर तो उसका अपना अस्तित्त्व ही समाप्त हो जाएगा. दूसरा रास्ता है कांग्रेस में जाने का. शिव सेना का तो कांग्रेस में मिलना मुश्किल है. भले उद्धव ठाकरे ने MVA में रह कर सरकार चलाई हो लेकिन उद्धव ठाकरे के कांग्रेस में जाने में कई अड़चनें हैं. उनके अपने वोट बैंक का मिज़ाज भाजपा के निकट है तब कांग्रेस में जाने का मतलब होगा, उनके अपने जनाधार का विलुप्त हो जाना.
अलबत्ता शरद पवार के साथ ऐसी दिक्कतें नहीं हैं. वे कांग्रेस से ही आए थे, फिर कांग्रेस में चले जाएंगे. मगर असली परेशानी उनका अपना कुनबा है. उनकी बेटी सुप्रिया सुले क्या कांग्रेस के साथ वैसी सौदेबाजी कर पाएंगी, जो वे NCP में कर सकती हैं. यहां वे शरद पवार के बाद सर्वाधिक पॉवरफुल नेता हैं. लेकिन कांग्रेस में उनको अपनी हैसियत बनाने में वर्षों लग जाएंगे. अभी तो शरद पवार के चलते उनको तरजीह मिलेगी किंतु आगे क्या होगा.
सुप्रिया सुले ने कयासों का किया खंडन
इसीलिए सुप्रिया सुले इन क़यासों का लगातार खंडन कर रही हैं कि NCP (शरद चंद्र पवार) गुट का कांग्रेस में विलय होगा. परंतु शरद पवार की परेशानी यह है कि वे अब 83 वर्ष के हो चुके हैं. उनके कुल 54 विधायक विधान सभा चुनाव में जीते थे. इनमें से एक की मृत्यु हो चुकी है. पिछली जुलाई में जब उनके भतीजे अजित पवार ने भाजपा से हाथ मिलाया था, तब वे अपने साथ 41 विधायक ले गए थे. इस तरह शरद पवार के पास अब सिर्फ़ 11 विधायक बचे हैं. नवाब मलिक ने अभी तक यह साफ़ नहीं किया है, कि वे किस गुट के साथ हैं.
अजित पवार के साथ दो सांसद भी गए थे. यही कारण रहा कि चुनाव आयोग ने 6 फ़रवरी को दिए अपने फ़ैसले में अजित पवार गुट को ही असली NCP माना था. आयोग ने बाक़ी के विधायकों को NCP (शरद चंद्र पवार) गुट नाम दिया था. उनका चुनाव चिन्ह भी अजित पवार को दे दिया था.
क्या फिर से संगठन खड़ा कर पाएंगे?
अब जबकि लोकसभा चुनाव को कुछ ही महीने शेष बचे हैं, तब शरद पवार के लिए संकट की बात यह है कि वे 18 वीं लोकसभा का मुक़ाबला कैसे करेंगे? उनकी अपनी पार्टी अब समाप्तप्राय है और नई पार्टी बनाएँ भी तो क्या इतनी जल्दी कुछ हो पाएगा? उनकी अपनी उम्र भी आड़े आ रही है और भतीजे का साथ छोड़ जाना भी. इसमें कोई शक नहीं कि महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र में शरद पवार आज भी एकक्षत्र नेता हैं. गांव-गांव तक उनकी पैठ है. कैन्सर जैसी बीमारी से जूझने के बाद भी वे सकुशल लौटे और उनकी याददाश्त भी यथावत है. उनके नज़दीकी लोग बताते हैं कि वे दूर दराज से आए कार्यकर्त्ताओं को पहचान लेते हैं और उन्हें उनके नाम से पुकारते हैं. उनकी यही अदा उनको यहां का बेमिसाल नेता बनाती है. लेकिन अब क्या वे फिर से संगठन खड़ा कर पाएंगे?
तीन बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे शरद पवार
शरद पवार की राजनीति 60 वर्ष से अधिक पुरानी है और पिछले 50 वर्षों से वे महाराष्ट्र की राजनीति के सबसे धाकड़ नेता हैं. उनके आशीर्वाद के बिना महाराष्ट्र में कोई भी CM की कुर्सी तक नहीं पहुंच सकता. राजनीति में उनके गुरु यशवंत राव चव्हाण रहे हैं. शरद पवार तीन बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे, नरसिंह राव की सरकार में वे रक्षा मंत्री मंत्री रहे और महाराष्ट्र के अनेक मुख्यमंत्रियों के संरक्षक रहे. गांव स्तर के कार्यकर्त्ता से केंद्रीय राजनीति में गया व्यक्ति भी उनसे आशीष पाने का आकांक्षी रहता था.
लेकिन पिछले वर्ष एक मई को जब उन्होंने राजनीति से संन्यास लेने तथा NCP की अध्यक्षता छोड़ने की घोषणा की तो सब सन्न रह गए. इसी समय उन्होंने यह भी बताया था, कि उन्होंने एक मई 1960 को राजनीति में प्रवेश लिया था. उनका पतन तो दरअसल शुरू तब हुआ, जब उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर NCP बनायी थी.
कई बार आया प्रधानमंत्री बनने का मौका
शुरू से ही वे कांग्रेस में रहे. मगर 1999 में सोनिया गांधी के विदेशी मूल की बात उठा कर वे कांग्रेस से अलग हो गए तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (NCP) बनाई. उनके साथ मेघालय के पीए संगमा और बिहार के तारिक अनवर भी इस पार्टी में गए. जल्द ही उनकी पार्टी को राष्ट्रव्यापी दर्जा मिल गया. इसके बाद से UPA सरकार में उन्हें केंद्र में कृषि मंत्री बनाया गया. 2004 में जब कांग्रेस गठबंधन (UPA) की सरकार बनी थी, तब यह भी कहा गया था कि यदि 5 साल पहले शरद पवार कांग्रेस से अलग न हुए होते तो शायद वही मनमोहन सिंह की जगह प्रधानमंत्री बनते. इसके पहले भी 1991 में और 1996 में वे प्रधानमंत्री बनते-बनते रह गए.
राजीव गांधी की मृत्यु के बाद जब कांग्रेस सरकार बननी थी तब वे कांग्रेस संसदीय दल में कुछ मतों से पीछे रह गए थे. इसके बाद 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन की सरकार गिरने के बाद कांग्रेस यदि सरकार बनाती तो वही PM बनते. लेकिन कांग्रेस ने संयुक्त मोर्चा को बैक किया और देवगौड़ा PM बने.
कांग्रेस में एनसीपी की विलय
ऐसे जमीनी नेता के लिए यह दुखद है कि 83 वर्ष की अवस्था में उसे अपने लिए पार्टी तलाश करनी पड़ रही है. भाजपा उनके लिए मुफीद हो नहीं सकती, ऐसे में कांग्रेस ही वह विकल्प है जो उन्हें स्वीकार हो सकता है. सुप्रिया सुले या पार्टी महासचिव देशमुख भले खंडन करें किंतु और कोई चारा नहीं है. कांग्रेस को भी अशोक चव्हाण के धोखा देने के चलते महाराष्ट्र में कोई जड़ों वाला नेता चाहिए इसलिए इस बात की संभावना है कि NCP के शरद चंद्र पवार वाले गुट का विलय कांग्रेस में हो जाए.
आयोग ने NCP का चुनाव चिन्ह घड़ी अजित पवार को दे दिया है. तब नये चुनाव चिन्ह के साथ वे कैसे महाराष्ट्र के गाँवों तक पहुँच पाएँगे? गाँवों में उनकी तरह ही उनके भतीजे अजित पवार ने ख़ासी पैठ बना ली है. ज़ाहिर है शरद पवार को अब अपनी पहचान बनाए रखने के लिए अपनी पुरानी पार्टी में जाना ही सबसे सुगम रास्ता है.