Jharkhand Elections 2024: झारखंड में इस बार चुनावी नतीजे एक नई सियासी दिशा की ओर इशारा कर रहे हैं। यह राज्य के लिए ऐतिहासिक पल हो सकता है क्योंकि 24 वर्षों के बाद पहली बार कोई पार्टी यहां मजबूत स्थिति में सत्ता में वापसी करती हुई दिख रही है। अब तक के रूझानों के मुताबिक, हेमंत सोरेन का गठबंधन झारखंड की 81 विधानसभा सीटों में से करीब 50 सीटों पर बढ़त बनाए हुए है। इनमें से कई सीटों पर बढ़त का अंतर 10 हजार से अधिक वोटों का है। यह आंकड़े दिखाते हैं कि हेमंत सोरेन का गठबंधन एक मजबूत स्थिति में नजर आ रहा है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि बीजेपी पूरी ताकत झोंकने के बावजूद सत्ता में क्यों नहीं आ पाई? इस स्टोरी में हम इसी सवाल का विश्लेषण करेंगे।
1. सीएम का चेहरा नहीं:
भारतीय जनता पार्टी के पास झारखंड के स्थानीय स्तर पर कोई स्पष्ट और मजबूत मुख्यमंत्री चेहरे का अभाव था। बीजेपी के पास केवल दो ऐसे नाम थे जिनसे मुख्यमंत्री बनने की संभावना थी: बाबू लाल मरांडी और चंपई सोरेन। दिलचस्प बात यह थी कि दोनों ही नेता दलबदलू थे। चंपई तो विधानसभा चुनाव से ठीक पहले बीजेपी में शामिल हुए थे। इसके विपरीत, हेमंत सोरेन की लोकप्रियता कहीं अधिक थी। एक्सिस माय इंडिया के एग्जिट पोल के अनुसार, हेमंत सोरेन को 41 प्रतिशत लोगों ने मुख्यमंत्री के रूप में पसंद किया, जबकि चंपई को केवल 7 प्रतिशत और बाबू लाल को 13 प्रतिशत ने ही पसंद किया था। इस लोकप्रियता के अंतर ने चुनावी मैदान में बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर दीं।
2. महिलाओं का वोटबैंक:
हेमंत सोरेन ने महिलाओं के बीच अपनी पकड़ को और मजबूत किया। उन्होंने मईयां सम्मान योजना की शुरुआत की, जिसके तहत प्रत्येक महिला के बैंक खाते में 1000 रुपये प्रतिमाह डाले गए। यह योजना महिलाओं को सीधे लाभ पहुंचा रही थी, और बीजेपी इसका प्रभावी जवाब देने में विफल रही। हेमंत ने अपनी पत्नी कल्पना सोरेन को भी चुनावी मैदान में उतारा। कल्पना ने चुनावी अभियान में लगभग 100 रैलियां कीं, जिनमें महिलाओं की भारी भीड़ जुटी। इस चुनाव में महिलाओं के वोट प्रतिशत में चार प्रतिशत की वृद्धि देखी गई, जो सीधे हेमंत सोरेन के पक्ष में गया।
3. आदिवासियों का गुस्सा:
हेमंत सोरेन ने आदिवासी मुद्दों को चुनावी रैलियों में प्रमुखता से उठाया। उनका कहना था कि आदिवासियों की अस्मिता की रक्षा करना सबसे महत्वपूर्ण है। हेमंत ने यह भी आरोप लगाया कि, भले ही उनकी पार्टी के पास पूर्ण बहुमत था, लेकिन केंद्र सरकार और राज्यपाल ने उनके द्वारा किए गए कई प्रस्तावों को मंजूरी नहीं दी। इनमें खतियानी और आरक्षण जैसे मुद्दे प्रमुख थे। बीजेपी और केंद्र सरकार पर आदिवासी वर्ग को नज़रअंदाज़ करने का आरोप हेमंत के लिए एक बड़ा राजनीतिक हथियार साबित हुआ, और आदिवासी इलाकों में उन्हें जोरदार समर्थन मिला।
4. कुड़मी वोटर्स का टूटना:
इस चुनाव में कुड़मी वोटबैंक भी महत्वपूर्ण साबित हुआ। पहले यह वोटबैंक आजसू पार्टी के साथ था, लेकिन इस बार जयराम महतो के उतरने के बाद ये वोटर बीजेपी से अलग होते नजर आए। सुदेश महतो के साथ बीजेपी का गठबंधन भी बहुत फायदेमंद नहीं रहा। आजसू पार्टी 2-3 सीटों पर ही बढ़त बनाए हुए दिख रही है। कुड़मी वोटर्स खासकर कोल्हान और कोयलांचल इलाकों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं, और इस बार इन वोटर्स के बीजेपी से दूर होने का सीधा लाभ हेमंत सोरेन के पक्ष में गया।
5. बड़े नेताओं का असफलता:
बीजेपी ने कई प्रमुख नेताओं को चुनावी मैदान में उतारा था, लेकिन अधिकांश बड़े नेता अपनी सीटों पर पिछड़ते नजर आए। बोकारो से कद्दावर नेता बिरंची नारायण, देवघर से नारायण दास और गोड्डा से अमित मंडल पिछड़ते दिख रहे हैं। यही हाल मधु कोड़ा की पत्नी का भी था, जो जगन्नाथपुर सीट से चुनाव लड़ रही थीं। इन बड़े नेताओं का हारना बीजेपी के लिए एक बड़ा झटका था और इसने पार्टी की सियासी स्थिति को और कमजोर किया।
निष्कर्ष:
झारखंड के इस चुनावी मुकाबले में हेमंत सोरेन के गठबंधन ने अपनी रणनीतियों के तहत महिलाओं, आदिवासियों और स्थानीय मुद्दों को अच्छे से भुनाया, जबकि बीजेपी की रणनीतियां कमजोर साबित हुईं। मुख्यमंत्री चेहरे का अभाव, महिलाओं और आदिवासियों का समर्थन खोना, और बड़े नेताओं की हार बीजेपी के लिए एक बड़ा सियासी धक्का है। इन कारणों से झारखंड में बीजेपी सत्ता में वापसी करने में सफल नहीं हो पाई, और हेमंत सोरेन के नेतृत्व में गठबंधन को मजबूत बहुमत मिलता हुआ दिखाई दे रहा है।